1857 के अनजाने राजपूत योद्धा:एक परिचय

यदि मै किसी से पूछूंगा की आप मंगल पांडेय या रानी लक्ष्मी  बाई को जानते हैं तो शायद सभी हाँ कहेंगे अब मैं आप से पूछता हूँ की क्या आप ठाकुर बंधू सिंह श्रीनेत को जानते हैं?चलिए छोड़िये क्या आप राजा लाल प्रताप सिंह को जानते हैं?मुझे सन्नाटा सा महसूस हो रहा है! आप ऐसे ही बहुतों को नहीं जानते आप बाबू गुलाब सिंह को भी नहीं जानते होंगे अब प्रश्न उठता है कि आप क्यों नहीं जानते? तो शायद इसलिए की  इतिहासकारों ने ये जरूरी नहीं समझा होगा क्योकि किसी  जमाने में कम्युनिस्टों का भारतीय शिक्षा क्षेत्र में दबदबा थाऔर कम्युनिस्ट लोग  किसी पर  वैचारिक आक्रमण करने से पहले  उस व्यक्ति के अंदर जाती और धर्म के नाम पर हीन भावना पैदा करने की कोशिश  करते हैं यही कारण है  की क्षत्रियों में हीन  भावना भरने के लिए उन्होंने उनके इतिहास के साथ  खिलवाड़ किया बहरहाल ये इस समय मेरे चर्चा का विषय नहीं है 
1857 की क्रांति बंगाल इन्फेंट्री के सैनिकों ने की थी जिसमे 60 % से ज्यादा पुरबिया और करीब ३०%तैलंगी लोग थे पुराने समय में अवध पूर्वांचल और बिहार के राजपूतों को पुरबिया कहा जाता था वहीँ जो सैनिक तेलंगाना क्षेत्र के रहने वाले थे उन्हें तैलंगी कहा जाता था| मध्य काल में चंदेरी रायसेन और कालिंजर के किले पुरबिया राजपूतों के अधीन थे                                                                         

बाबू बंधू सिंह श्रीनेत :बाबू बंधू सिंह का जन्म १ मई 1833 को गोरखपुर की डुमरी रियासत में हुआ  था गठीले शरीर के मालिक बंधू सिंह ने अंग्रेजों को पराजित करने के लिए स्थानीय गोर्रा नदी के तट के जंगलों में अपना निवास बनाया वे मौका पाते ही जंगल  से गुजर रहे अंग्रेजों का सर काट लेते थे और उसे अपनी आराध्या माँ दुर्गा जिनकी मूर्ति उन्होंने ताड़ के पेड़ के नीचे स्थापित की थी को चढ़ा देते ऐसे करते करते उन्होने सैकड़ों अंग्रेजों को मौत के घाट  उतार दिया पहले तो अंग्रेजों को लगा की जंगल में रहने वाला कोई शेर या बाघ ऐसा कर रहा है लेकिन बाद में किसी की मुखबिरी के चलते उन्हें पकड़ लिया गया और फांसी दे दी गयी ऐसी किवदंती है की माँ दुर्गा के इस अनन्य भक्त की मृत्यु के दिन  ताड़ का पेड़ स्वतः ही टूट गया आज उस स्थान पर एक मंदिर है जो तरकुलहा देवी के नाम से प्रसिद्ध है|         

             

ठाकुर गुलाब सिंह:इनका जन्म अवध के प्रतापगढ़  स्टेट से सम्बन्ध रखने वाले तारागढ़ के सोमवंशी राजपूत परिवार में हुआ  था ये तारागढ़ के ताल्लुकेदार थे इन्होने अपने छोटे भाई मेदिनी सिंह के साथ बकुलही नदी के तट  पर अंग्रेजों से भीषण युद्ध  किया अंग्रेजों की सेना विशाल थी जबकि इनके पास अपने निजी सैनिक थे लेकिन इन्होने अपनी वीरता से हजारों अंग्रेज सैनिकों को मार डाला अंततः घायल होने एवं  उचित चिकित्सा न होने के कारण इनकी मृत्यु  हो  गयी इन्होने एक गांव जिसका  नाम कटरा गुलाब सिंह है की स्थापना की थी जबकि इनके भाई ने कटरा  मेदिनीगंज नामक गांव बसाया था | 
लाल प्रताप सिंह: युवराज लाल प्रताप सिंह  प्रतापगढ़़(up) के काला कांंकर रियासत के राजा हनुमंत सिंह के जेष्ठ पुत्र थे। 1857 की क्रांति के समय बेगम हजरत महल के निवेदन पर राजा हनुमंत सिंह नेे  लाल प्रताप को अमेठी के राजा माधव सिंह के साथ चांदा की लड़ाई में भेजा स्थानीय किसानों ने भी लाल प्रताप सिंह की मदद की  और उनकी सेना में सम्मिलित हो गए। अंग्रेजों के पास काफी विशालकाय सेना थी वह पूरी  तैयारी के साथ आए थे लेकिन लाल प्रताप सिंह के नेतृत्व के सम्मुख अंग्रेजों की तैयारी धरी की धरी रह गई और चांदा की पहली लड़ाई में अंग्रेज बुरी तरीके से पराजित हुए।  चांदा की लड़ाई में अंग्रेजी सेना का नेतृत्व जनरल नील कर रहा था।  जैसा कि बारबेरियन जातियां हमेशा से कुटिलता और कपट का सहारा लेती रही है उसी तरह अंग्रेजों ने चांदा की दूसरी लड़ाई मेंं कुटिलता  और खुफिया तरीकों का उपयोग करके  विजय प्राप्त की ।सीधी लड़ाई के द्वारा लाल प्रताप सिंह को जीतना कठिन था क्योंकि उन्हें भारी जनसमर्थन प्राप्त था। इस प्रकार 19 फरवरी 1857 को यह वीर सपूत राजा माधो सिंह केेेे साथ 26 वर्ष की अल्प आयु में ही शहीद हो गया।। उनकी वीरता से प्रभावित होकर  अवधी भाषा में एक लोकगीत है
         काला कांकर कय विसेनवा।
          चांदा गाड़े बा निशनवा।।
बलभद्र सिंह रैकवार : महान साहित्यकार अमृतलाल नागर जी की एक पुस्तक है ग़दर के फूल जिसे इन्होने बलभद्र सिंह और उनके साथ के 600 योद्धाओं को समर्पित किया है| उस जमाने के ब्रिटिश युद्ध संवाददाता विलियम रसेल ने बलभद्रसिंह  के  वीरता की दिल खोलकर कर  प्रशंसा की है बलभद्र सिंह रैकवार का जन्म उत्तरप्रदेश के अवध क्षेत्र में बहराइच जिले में स्थित चहलारी ताल्लुकेदारी में हुआ था चहलारी ताल्लुके में 33 गांव आते थे चहलारी अपने समय की  काफी संम्पन्न रियासत थी | जब लखनऊ पर अंग्रेजों का कब्ज़ा हो गया तब बाराबंकी जिले में रुइया किले के ठाकुर नरपत सिंह और बेगम हज़रत महल के अनुरोध पर बलभद्र सिंह ने बाराबंकी के नवाबगंज में अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा संभाला बलभद्र सिंह और उनके 600 योद्धाओं ने इतनी भीसड़ मार काट  मचाई की उस जमाने में अंग्रेजों की मशहूर रेजिमेंट हडसन हॉर्स को अपनी जान बचा कर भागना पड़ा और हजारों की संख्या में अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया गया स्वयं ब्रिगेडियर होपग्रांट भी बलभद्र सिंह के युद्ध कौशल से बहुत प्रभावित हुवा लेकिन तीसरे दिन की लड़ाई में 13 जून 1858 को युद्ध में बुरी तरह से घायल होने के कारण बलभद्र सिंह 19वर्ष की आयु में  वीरगति को प्राप्त हुए और अपनी गर्भवती पत्नी और विधवा माँ को अनाथ छोड़ गए | उधर ठाकुर नरपत सिंह जो बहुत ही विशालकाय और ताकतवर शरीर का मालिक था अंतिम दिन की लड़ाई में किले का फाटक खोल देता है और अपने बहादुर सिपाहिओं के साथ अंग्रेजों के ऊपर टूट पड़ता है जिसमें कई अंग्रेज मारे जाते हैं यहाँ तक की युद्ध का नेतृत्व कर रहा अंग्रेज अधिकारी ब्रिगेडियर एड्रियन होप भी मारा जाता है साथ ही साथ नरपत सिंह और उसके सैनिक भी युद्ध में वीरगति को प्राप्त गए |                                                                                                                                                           " यहाँ ये बात सदैव याद रखनी चाहिए की 1857 में सैनिकों के विद्रोह के पीछे गाय और सुवर की चर्बी लगी कारतूस एक कारण थी लेकिन अवध ,पूर्वांचल और पश्चिमी बिहार के राजपूत जमीदारों और योद्धाओं के विद्रोह के पीछे कोई सटीक कारण नहीं था क्योंकि वो स्वयं अंग्रेजों के तंत्र के एक हिस्से थे लेकिन उनका ये संघर्ष अपने स्वाभिमान के लिए और अंग्रेजों के भयानक अत्याचारों के खिलाफ था ;           ###########################################################################             

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